Thursday, March 28, 2019

कॉन्ग्रेस कर रही थी भारत पर अंतरराष्ट्रीय हमले का इंतज़ार, US ने कहा ‘हम भारत के साथ हैं’

कॉन्ग्रेस की उम्मीदों को तब झटका लगा जब अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट ने #मिशन_शक्ति पर आधिकारिक रूप से भारत के साथ खड़े होने की बात की। कॉन्ग्रेस के लिए यह पचाना मुश्किल होगा कि मोदी की विदेश नीति राष्ट्रहित में फलित हो रही है।

लगातार अपने अस्तित्व की लड़ाई से जूझ रही कॉन्ग्रेस हर दिन कुछ ऐसा कर जाती है जिससे उसके कुर्सी प्रेम और देश प्रेम में बढ़ते अंतर को देश की जनता देख ही लेती है। कल जब प्रधानमंत्री मोदी ने देश को बताया कि भारत ने स्वदेशी तकनीक से निर्मित एंटी सेटेलाइट मिसाइल का सफल परीक्षण करते हुए मिशन शक्ति में सफलता पाई है, तो कॉन्ग्रेस के मनीष तिवारी की प्रतिक्रिया देखने लायक थी।

कॉन्ग्रेस के तिवारी के अनुसार यह एक उपलब्धि नहीं, उन्माद है, “जब यह उन्माद थम जाएगा तब हमें अंतरराष्ट्रीय समाज कुछ कड़े सवाल पूछेगा। आशा है कि हम एक राष्ट्र के तौर पर उनका जवाब देने में सक्षम होंगे।” यह उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा। साथ ही, तिवारी जी ने फ़रवरी 2007 से स्पेस डॉट कॉम नामक पोर्टल की एक ख़बर लगा रखी थी जिसमें चीन द्वारा इसी तरह के परीक्षण पर सवाल किए गए थे।

मतलब साफ है कि कॉन्ग्रेस मना रही थी कि भारत की छवि विदेशी राष्ट्रों के बीच नकारात्मक बने और फिर वो अपने पुराने हथकंडे अपनाते हुए मोदी के विदेशी दौरों से लेकर राष्ट्राध्यक्षों से निजी तौर पर बेहतर संबंध रखने की बातों का उपहास कर सकें। वस्तुतः, कॉन्ग्रेस के दिल की यह बात अभी भी दिल में ही होगी, और वो इंतजार कर रहे होंगे कि कब कोई भी देश इस बात की निंदा करे।

हालाँकि, ऐसा होने की उम्मीद बहुत कम है क्योंकि भारत को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में कभी भी युद्ध या अशांति के माहौल पर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई है। पीएम मोदी ने भी यह बात साफ कर दी थी कि इसका उपयोग क्षेत्र में अशांति फैलाने के लिए नहीं होगा।

कॉन्ग्रेस और तिवारी की उम्मीदों को तब झटका लगा जब आज सुबह अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट में मिशन शक्ति पर आधिकारिक रूप से भारत के साथ खड़े होने की बात की और कहा, “हमने एंटी सेटेलाइट सिस्टम के परीक्षण पर प्रधानमंत्री मोदी के बयान को देखा। भारत के साथ अपने मजबूत सामरिक साझेदारी के मद्देनज़र, हम अंतरिक्ष, विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्रों में सहयोग सहित, अतंरिक्ष सुरक्षा में सहभागिता के साझा हितों पर लगातार साथ मिलकर काम करते रहेंगे।

जब अमेरिका इन मुद्दों पर अपनी राय किसी देश के साथ रखता है, इसका मतलब यह होता है कि बाती देशों को भी इससे समस्या नहीं होती। यूँ तो चीन ने भी इस पर समझदारी भरी बात कही है और बयान देने के लिए ही बयान दिया है जो कि एक टैम्पलेट टाइप का बयान है जहाँ हर राष्ट्र इस तकनीक और शांति की बात करता दिखता है।

कॉन्ग्रेस के लिए यह पचाना मुश्किल होगा कि जिस मोदी को वो विदेश नीति के लिए घेरने की मंशा बना रहे था, उसकी विदेश नीति राष्ट्रहित में फलित हो रही है।

Wednesday, March 27, 2019

मिशन शक्ति: कॉन्ग्रेसी चाटूकार गलत,

मोदी इस रिस्क के लिए पूरी तरह से श्रेय के हकदार।

जिस समय लोग वोट बैंक और चुनावी गणित में उलझे हैं, उस समय भी कोई है जिसके लिए देश सर्वोपरि है। सही मायने में प्रधानमंत्री वैज्ञानिकों के साथ पूरे क्रेडिट के हक़दार हैं। प्रधानमंत्री ने मिशन में शामिल सभी वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए कहा, "आपने अपने कार्यों से दुनिया को ये सन्देश दिया है कि हम भी कुछ कम नहीं हैं।"

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आज बुधवार (मार्च 26, 2019) को भारत के अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की घोषणा की गई। उन्होंने कहा कि भारत ने आज एक अभूतपूर्व सिद्धि हासिल की है। भारत ने आज अपना नाम ‘स्पेस पॉवर’ के रूप में दर्ज करा लिया है। अब तक रूस, अमेरिका और चीन को ये दर्जा प्राप्त था, अब भारत ने भी यह उपलब्धि हासिल कर ली है।

भारत ने आज अपना नाम ‘स्पेस पावर’ के रूप में दर्ज करा दिया है। अब तक दुनिया के 3 देशों अमेरिका,  रूस, और चीन को ये उपलब्धि हासिल थी। अब भारत चौथा देश है, जिसने आज यह सिद्धि प्राप्त की है:
मोदी ने एक महत्वपूर्ण घोषणा में राष्ट्र को बताया कि भारत ने एंटी-सैटेलाइट मिसाइल (एएसएटी) विकसित किया है जिससे अंतरिक्ष में दुश्मन के उपग्रहों को मार गिराया जा सकता है।

लेकिन भारत में बैठे कॉन्ग्रेस के कुछ नेताओं, लिबरल पत्रकारों ने इस उपलब्धि पर भी नेहरू, इंदिरा से लेकर पूरा कॉन्ग्रेसी खानदान को श्रेय दे डाला। कुछ ने तो इसे सिर्फ DRDO की उपलब्धि बता डाला। ठीक वैसे ही जैसे सर्जिकल स्ट्राइक पर सेना और एयर फोर्स को पूरा क्रेडिट देने के चक्कर में, प्रधानमंत्री के नेतृत्व को पूरी तरह नकारना चाहा।

कॉन्ग्रेस के राजनेता और चाटुकार पत्रकार तो चरण वंदना में इतने प्रवीण हैं कि आज के इस शानदार उपलब्धि के लिए वैज्ञानिकों और वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के बजाय जवाहरलाल नेहरू को श्रेय देने में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक रहे हैं। अगर अभी उन्हें याद दिलाया जाए कि कश्मीर में जो हो रहा है, चीन ने भारत का भूभाग हड़प लिया, भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थाई सदस्य किसकी वजह से नहीं बना… तो इन्हें नेहरू और कॉन्ग्रेस के नाम पर साँप सूँघ जाता।

यहाँ तक कि कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने डीआरडीओ को बधाई देते हुए प्रधानमंत्री मोदी पर व्यंग्य कर उनके योगदान को ख़ारिज करना चाहा।

जबकि सदैव चरण वंदन में संलग्न उन लिबरल पत्रकारों और कॉन्ग्रेस के नेताओं को ये अच्छी तरह पता है कि उन्होंने हर क्षेत्र में लूटपाट और घोटालों की संस्कृति को बढ़ावा देकर भारत के संभावित विकास को कितना पीछे धकेल दिया है। कॉन्ग्रेस शासन का पूरा इतिहास ऐसे काले अध्याओं से भरा है कि भारत की लगभग हर स्वायत्त संस्था को बर्बाद करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। अगर आपने न पढ़ा हो तो पढ़िएगा इसरो वैज्ञानिक नाम्बी नारायणन के बारे में कि कैसे कॉन्ग्रेसियों ने मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए उनकी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी और वैज्ञानिक शोध को वर्षों पीछे धकेल दिया।

आज की कामयाबी, DRDO और ISRO के साथ ही यह वर्तमान सरकार की वैश्विक राजनीति में भारत के बढ़ते कद को भी दर्शाता है कि वह इस तरह की कोशिश करने का साहस भी कर सकता है। हमारे वैज्ञानिक 2010 से कह रहे हैं कि हमारे पास ASAT मिसाइलों को विकसित करने के लिए अपेक्षित क्षमताएँ हैं लेकिन उन्हें इस पर काम करने का मौका नहीं दिया गया। स्पष्ट रूप से, यह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी थी।

इस बात से इनकार नहीं किया जा रहा है कि भारत को अपने इस महत्वाकांक्षी मिशन को आगे बढ़ाने से प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता था। फिर भी ये नरेंद्र मोदी जैसे ग्लोबल पहुँच वाले नेता के नेतृत्व क्षमता की ही बात है कि वैश्विक दबाव को अपने पक्ष में मोड़ते हुए आज भारत को सफलता के इस शिखर पर पहुँचाया। जहाँ भारत एक वैश्विक शक्ति बनकर उभरा है। इससे पहले एलिट मानसिकता के लोग हमारे मंगल जैसे बेहद सस्ते और सफल प्रोजेक्ट का मजाक उड़ाने से नहीं चुके थे। आज उनमें भी हलचल होगा और ये डर भी कि मोदी अगर इसी तरह देश को आगे बढ़ाता रहा तो आने वाले दिनों में कोई भी हमारी तरफ आँख उठा कर देखने से पहले सौ बार सोचेगा।

लाइवफिस्ट के अनुसार, 2010 में, भारत के एडवांस्ड सिस्टम्स लेबोरेटरी (एएसएल) के निदेशक डॉ अविनाश चंदर ने कहा था, “हमने ऐसे प्रौद्योगिकी ब्लॉक विकसित किए हैं, जिन्हें एक उपग्रह-रोधी हथियार (anti-satellite weapon) बनाने के लिए एकीकृत किया जा सकता है। अंतरिक्ष में ऐसे कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए हमें जो तकनीक चाहिए वह है, जिसे हमने अग्नि मिसाइल कार्यक्रम के साथ बहुत मजबूती से साबित किया है।” फिर भी कॉन्ग्रेस ने इस तरह के शोध और भारत को शक्तिशाली बनाने पर ध्यान न देकर घोटालों से खुद की झोली भरने पर ध्यान दिया।

डीआरडीओ प्रमुख डॉ वीके सारस्वत ने कहा था, ”हमारे पास पहले से ही इस तरह के एक हथियार का डिजाइन है, लेकिन इस स्तर पर, देश को अपने सामरिक शस्त्रागार में इस तरह के हथियार की आवश्यकता है या नहीं, यह निर्णय सरकार को करना होगा। इस तरह के हथियार का परीक्षण करने पर बहुत सारे परिणामों का सामना करना पड़ सकता हैं, जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए। लेकिन परीक्षण एक मुद्दा नहीं है- हम हमेशा सिमुलेशन और जमीनी परीक्षण पर भरोसा कर सकते हैं। हम भविष्य में देख सकते हैं कि क्या सरकार ऐसा कोई हथियार चाहती है। यदि हाँ, तो हमारे वैज्ञानिक इसे देने के लिए पूरी तरह से सक्षम हैं।”

2012 में, इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में, डॉ सारस्वत ने रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में कुछ साल पहले दिए गए बयानों को दोहराया था। उन्होंने कहा था, “आज, भारत में जगह-जगह एक एंटी-सैटेलाइट सिस्टम के लिए सभी बिल्डिंग ब्लॉक्स मौजूद हैं। हम अंतरिक्ष को हथियार नहीं बनाना चाहते हैं लेकिन बिल्डिंग ब्लॉक्स जगह पर होना चाहिए। क्योंकि आप उस समय इसका उपयोग कर सकें जब आपको इसकी आवश्यकता होगी।”I

चीन ने 2007 में जब ऐसी क्षमता हासिल कर ली थी तब से भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा ASAT मिसाइलों के निर्माण करने की तत्काल आवश्यकता महसूस की जा रही थी। जबकि सारस्वत ने कहा था कि भारत के पास आवश्यक क्षमताएँ हैं। लेकिन भारत की स्पेस क्षमता के आलोचकों को संशय था। इसके अलावा, यह कहा जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत के साथ बहुत अलग तरह से व्यवहार करेगा जबकि चीन के साथ ऐसे परीक्षणों के बाद भी व्यवहार बहुत नहीं बदला था।

पड़ोसी देश की बढ़ती ताकत को देखते हुए भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान को अंतरिक्ष में चीन की क्षमताओं का मुकाबला करने के लिए ASAT मिसाइलों को विकसित करने की आवश्यकता महसूस हुई थी। डीआरडीओ प्रमुख ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया था कि भारत के पास ऐसी मिसाइलों को विकसित करने और परीक्षणों को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक क्षमताएँ हैं। ASAT मिसाइलों का निर्माण करने की क्षमताओं के बावजूद, इस मिशन पर तत्कालीन नेतृत्व ने ध्यान नहीं दिया।

वास्तव में, अप्रैल 2012 में, सारस्वत ने कहा था कि तत्कालीन यूपीए सरकार ने उन्हें इस तरह के कार्यक्रमों को विकसित करने के लिए अनुमति नहीं दी थी। जबकि उन्होंने तत्कालीन नेतृत्व को बार-बार यह यकीन दिलाया था कि अग्नि-V का सफल प्रक्षेपण करने बाद, भारतीय वैज्ञानिकों में एंटी-सैटेलाइट मिसाइल विकसित करने की क्षमता थी।

चूँकि, यूपीए सरकार ने इस तरह के कार्यक्रमों को मंजूरी नहीं दी। इसलिए, आज हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि यूपीए शासन के लिए उस समय की प्राथमिकता कुछ और थी या वे उस समय घोटालों और देश को दिवालिया करने में इतने व्यस्त थे कि देश को आगे बढ़ाने वाले कार्यक्रमों के लिए नैतिक बल खो चुके थे। और आज जब वैश्विक स्तर पर मजबूती से अपना स्थान बनाने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री ने इस शोध, निर्माण और परीक्षण को उसके मुकम्मल अंजाम तक पहुँचाया तो कॉन्ग्रेस अपनी विफलता छिपाने के लिए देश को बरगलाने की कोशिश कर रही है। और उसके इस काम में उसके सभी दरबारी लिबरल पत्रकार जी जान से जुट गए हैं।

भारत ने प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में परमाणु क्षमता विकसित की। भारत ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र में अन्य उन्नति के साथ ASAT मिसाइलों का विकास किया। दोनों ही मिशन अपार राजनीतिक जोखिम से जुड़े थे। वाजपेयी ने तब और नरेंद्र मोदी ने अब, दोनों ने अपनी काबिलियत के भरोसे राजनीतिक जोखिम लिया। दोनों बार रिस्क बड़ा था, अगर कुछ भी गड़बड़ हो जाता तो नुकसान बड़ा होता।

पर अब जब यह साफ दिखने लगा है कि यह एक बड़ी सफलता है, अचानक से, हर कॉन्ग्रेसी चाटुकार पत्रकार और नेता सक्रीय हो गए हैं। क्रेडिट लूटने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। कॉन्ग्रेस ने 60 सालों तक देश का बेड़ा गर्क किया। हर जगह सत्ता और वोट बैंक की राजनीति करते रहे। देश को कंगाली के कगार पर खड़ा कर दिया और वह भी इसमें न सिर्फ अपना हिस्सा चाहती है बल्कि सारा श्रेय ही नेहरू, इंदिरा तक सीमित कर देना चाहती है। हर्रे लगे न फिटकरी रंग चोखा, कुछ करना भी न पड़े और श्रेय पूरा। पर अब देश उनके इस छल को समझता है। अब जनता कॉन्ग्रेस की हर चाल को विफल करने में देर नहीं लगा रही।

मिशन शक्ति वैश्विक राजनीति में भारत की बढ़ती धाक का भी एक वसीयतनामा है। नरेंद्र मोदी ने पिछले पाँच वर्षों के दौरान जिन कूटनीतिक रिश्तों को मजबूती दी है, वे सभी सरकार को परीक्षण करने का विश्वास दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया क्या होगी, ये अभी देखना बाकी है। लेकिन इस बात की प्रबल संभावना है कि नरेंद्र मोदी अपने विशेष कौशल से मुश्किल परिस्थितियों में भी रास्ता निकाल लेंगे। हालाँकि, विश्व ये भली-भाँति जानता है कि अब भारत की स्थिति 5 साल पहले वाली नहीं रही। आज नेतृत्व हर मोर्चे पर सशक्त और तैयार है। बेशक, आज इस उपलब्धि का श्रेय काफी हद तक नरेंद्र मोदी की विदेश नीति को जाना चाहिए।

कुछ लोग जो सवाल कर रहे हैं कि ठीक चुनाव से पहले इसका परीक्षण क्यों किया गया। उनके लिए बता दें कि भारत के परीक्षण की घोषणा का समय भी महत्वपूर्ण है। वर्तमान में जिनेवा में 25 देशों द्वारा एक अंतरिक्ष शस्त्र संधि (Space Arms Treaty) पर चर्चा की जा रही है। इस बात की बहुत अधिक संभावना व्यक्त की जा रही थी कि अगर इस तरह की संधि पर बातचीत किसी अंजाम तक पहुँचती है तो पहले से परीक्षण कर चुके 3 देशों के अलावा किसी अन्य राष्ट्र के लिए एएसएटी बनाने और परीक्षण का रास्ता बहुत कठिन होगा। क्योंकि ये 3 राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय कानून द्वारा ऐसे किसी भी निर्माण-परीक्षण को अवैध बना देंगे। लेकिन अब, ऐसे किसी भी प्रयास को अंजाम देने से पहले भारत को भी ध्यान में रखना होगा।

ये सही मायने में राष्ट्र के प्रति समर्पित, दूरदृष्टि से युक्त राजनेता के लक्षण हैं। जिस समय लोग वोट बैंक और चुनावी गणित में उलझे हैं, उस समय भी कोई है जिसके लिए देश सर्वोपरि है। सही मायने में प्रधानमंत्री वैज्ञानिकों के साथ पूरे क्रेडिट के हक़दार हैं। प्रधानमंत्री ने मिशन में शामिल सभी वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए कहा, “आपने अपने कार्यों से दुनिया को ये सन्देश दिया है कि हम भी कुछ कम नहीं हैं।”


   
नेहरू छुच्छी में आग लगाकर छोड़ चुके थे ASAT, लेकिन फ्यूज़ कंडक्टर निकाल लिया था मोदी ने।
नेहरू के बाद इंदिरा गाँधी के पास भी मौका था और वो आपातकाल को लेकर इतनी भी व्यस्त नहीं थी कि एक मिसाइल की बत्ती में आग लगाने का समय न निकाल पातीं। लेकिन अगली पीढ़ी के पास भारत की घास से लेकर आकाश तक पर अपनी दादी, परनाना आदि को याद करने का मौका उन्होंने राहुल के लिए छोड़ा।
भारत ने आज एंटी सैटेलाइट के प्रक्षेपण के 3 मिनट के भीतर ही लो अर्थ ऑर्बिट में एक सैटेलाइट को मार गिराया और इसके साथ ही हमारा देश दुनिया का चौथा ऐसा देश बना है, जिसे अंतरिक्ष में मार करने वाले मिसाइल की तकनीकी हासिल है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा की गई इस घोषणा से आहत नेहरू-भक्तों ने सनसनी मीडिया गिरोह सॉल्ट न्यूज़ द्वारा फैक्ट चेक करवा कर इस वायरल दुखद घटना को लेकर बड़ा खुलासा कर डाला।
सॉल्ट न्यूज़ द्वारा ट्विटर पर जनमत संग्रह आयोजित करने के बाद जो निष्कर्ष निकला है उसके अनुसार कम लोग ये बात जानते हैं कि आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू माउंटबेटेन के साथ मिलकर एंटी सैटेलाइट मिसाइल की छुच्छी में आग लगा ही रहे थे कि तब तक नरेंद्र मोदी ने उनके फ्यूज कंडक्टर (नेहरू के नहीं) निकाल लिए।
कुछ लोग यह भी कहेंगे कि मोदी तो नेहरू के समय में थे भी नहीं, लेकिन आज के लोग यह जानते हैं कि ‘मोदी है तो मुमकिन है।’ ख़ैर, मजाक अपनी जगह है लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि मोदी ने जिस तकनीक का इस्तेमाल करते हुए श्री नेहरू जी द्वारा विश्व का प्रथम देश बनने की उपलब्धि पर फ्यूज़ कंडक्टर निकाल कर प्रहार किया, वो तकनीक भी नेहरू जी द्वारा स्थापित (फ़िलहाल गुप्त) राजीव गाँधी टेलीपोर्टेशन अनुसन्धान संस्थान की ही देन है। कॉन्ग्रेस ने इस बात पर भी अपना रोष व्यक्त किया है।
गोदी मीडिया आपको ये बात कभी नहीं बताएगी, लेकिन सत्य यह है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद रोजाना ED ऑफिस के चक्कर काट रहे रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका गाँधी की दादी इंदिरा गाँधी भी इस मिसाइल को लॉन्च करने का प्रयास करने जा रही थी। सॉल्ट न्यूज़ के सूत्रों ने बताया कि इंदिरा गाँधी ने इसलिए भी यह कार्य अपने कार्यकाल में रह जाने दिया, ताकि जब कभी भविष्य के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार राहुल गाँधी मुद्दों की कमी से जूझें, तो वो झट से DRDO और ISRO के अस्तित्व का श्रेय भी गाँधी परिवार को देकर जनता को खुश कर सके। वरना आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी जी इतनी भी व्यस्त नहीं थीं कि वो एक मिसाइल की बत्ती में आग लगाने का समय न निकाल पातीं।
भक्त मंडली 55 साल बाद #MissionShakti का श्रेय उन्हें दे रही है।
आज की उपलब्धियों का श्रेय नेहरूजी को, तो #कश्मीर में सेना और निर्दोष लोगों के मारे जाने, चीन के विस्तारवाद और सुरक्षा परिषद में मसूद के बच निकलने के ज़िम्मेदार नेहरू जी क्यों नहीं ?

एतना देर हो गया, सबूत नहीं माँगोगे ASAT से सेटेलाइट मार गिराने का?

ममता इस बात पर चुनाव आयोग जाने की धमकी देती हैं, गुप्ता जी इसे डाउनप्ले करते हैं जैसे उनके लौंडे ने बीयर की बोतल में बीस रुपए का रॉकेट रखकर आग लगाई हो, राहुल गाँधी को इसमें थिएटर डे की याद आती है, और कॉन्ग्रेस को याद आता है कि नेहरू जी तो इसरो में ही बीड़ी पीने जाया करते थे।

देश की घास से लेकर भारत के अंतरिक्ष और आकाश तक में विचरते बिगबैंग से निकले पार्टिकल तक, हर चीज नेहरू, इंदिरा या राजीव गाँधी की ही देन हैं, ऐसा कॉन्ग्रेस पार्टी मानती आई है। हाल ही में, अपने समय में मुंबई हमलों के बाद एयर स्ट्राइक करने के वैश्विक डर से झुकने की नीति अपनाने वाले कॉन्ग्रेस ने बालाकोट स्ट्राइक का क्रेडिट मोदी को देने से इनकार कर दिया था। उनके अनुसार वो तो एयर फ़ोर्स ने किया।

उसी तर्ज़ पर इसरो जैसे संस्थानों की हर उपलब्धि पर ये लोग तुरंत ये बताने लगते हैं कि नेहरू जी इसरो के कैम्पस में करनी से सीमेंट को बराबर किया करते थे। वैज्ञानिक कुछ करें तो तुरंत बताते हैं कि वो जिस बिल्डिंग में काम करते हैं वो कॉन्ग्रेस काल में बनी थी। उसी तर्ज़ पर आज जब डीआरडीओ द्वारा विकसित स्वदेशी तकनीक से लैस एंटी सैटेलाइट मिसाइल (ASAT) ने धरती से 300 किमी ऊपर एक सक्रिय उपग्रह को तीन मिनट में मार गिराया, तो कॉन्ग्रेस ने नेहरू और इंदिरा को इसका श्रेय दिया।

इनकी बातों का विरोधाभास देखिए कि इनके अनुसार ये काम वैज्ञानिकों ने किया, तो वो बधाई के पात्र हैं। अगर ऐसा है तो फिर नेहरू ने कौन-सी मिसाइल तकनीक विकसित की थी? या, इंदिरा गाँधी ने कब इसरो जाकर कंट्रोल रूम सँभाला था? वैसे भी, मोदी ने तो कहीं भी, एक भी बार, यह नहीं कहा कि इस उपलब्धि के लिए वो अपने कैबिनेट, पार्टी और गठबंधन को बधाई देते हैं।

जब मोदी ने इसरो को बधाई दी, देश के हर नागरिक को शुभकामनाएँ दी, तो फिर इसमें राहुल गाँधी का ‘वर्ल्ड थिएटर डे’ कहना कहाँ तक उचित है? ये बात सबको पता है कि राहुल गाँधी के वश की बात नहीं है दिनों की ऐतिहासिकता या प्रासंगिकता को याद रखना। उनकी एक टीम होगी जो उनके नाम से यह सारी बातें लिखती है, और वो ख़बर बनती है। फिर भी, जब नाम उनका है, और पार्टी उसे डिफ़ेंड करती है, तो फिर उन्हें ये बताना चाहिए कि उनकी समस्या क्या है। क्योंकि, समस्या बता देंगे तो फिर आयुष्मान योजना में कुछ व्यवस्था की जा सकेगी।

राहुल गाँधी या कॉन्ग्रेस पार्टी हर दूसरे दिन मोदी और भाजपा से पिट रही है। उनके पास ‘रिडिक्यूल’ के अलावा और कुछ नहीं बचा। उनकी पार्टी स्वघोषित रूप से भारतीय राष्ट्र मीम्स आयोग बन कर नाम कमा रहा है। उनके पार्टी के प्रवक्ता ये नहीं सोच पा रहे कि अध्यक्ष ने जो बात कह दी है, उसमें से गणित कहाँ है, और उसे कैसे जस्टिफाय किया जाए।

इसलिए, जिन्हें यह समझ में नहीं आ रहा कि सेटैलाइट सूट करना कितनी बड़ी उपलब्धि है, वो आज की लीडरशिप को तो इसका क्रेडिट नहीं दे रहे, लेकिन अपनी दादी और उनके पिता को ज़रूर सामने ला रहे हैं। अब यही कहना बचा है कॉन्ग्रेस के लिए कि नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व में ही भारतीय परिवारों में बच्चे हुए, अतः उनकी तमाम उपलब्धियाँ बाय डिफ़ॉल्ट नेहरू जी की हैं।

जबकि, नेहरू की एक उपलब्धि राहुल गाँधी भी हैं। इससे राहुल गाँधी भी इनकार नहीं कर सकते। इससे सोनिया गाँधी भी इनकार नहीं कर सकती। इससे कॉन्ग्रेस प्रवक्ता से लेकर कोई भी समर्थक भाग नहीं सकता।

राहुल गाँधी ने ऐसे हर मौक़े पर देश की तमाम संस्थाओं का अपमान किया है। सर्जिकल स्ट्राइक पर सबूत माँगते रहे, एयर स्ट्राइक पर सबूत माँगते रहे और अब इस तकनीक का भी सबूत वो शायद एक-दो दिन में माँग ही लेंगे। यही पैटर्न है उनका और तमाम महागठबंधन की पार्टियों का। पहले दिन वो संस्था को बधाई देते हैं, लेकिन ज्योंहि उन्हें पता चलता है कि ‘अरे, अभी तो मोदी ही पीएम है’, वो फ़टाक से सबूत माँगने लगते हैं सबूत। इनके कहने का तरीक़ा भले ही अलग हो, मूल में बात वही होती है कि सरकार जो उपलब्धि गिना रही है, उसे वो मानने को तैयार नहीं है।

उसके बाद एक गिरोह सक्रिय हो जाता है। राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस की नौटंकी के साथ ही ममता बैनर्जी टाइप के लोग बेकार की बातें कहने लगे हैं। इनका स्क्रिप्ट भी एक ही रहता है: ये चुनावों के समय हुआ है, इसका पोलिटिकल मायलेज लिया जा रहा है। इनका तर्क इतना वाहियात है कि इन सबकी सामूहिक मानसिक क्षमता पर आप आँख मूँदकर सवाल उठा सकते हैं।

कहना है कि ये काम तो वैज्ञानिकों का है, उन्हें आकर यह बताना था। सही बात है। फिर सरकार करती क्या है आखिर? सड़क मज़दूर और इंजीनियरों के सहयोग से बनता है, फ़ीता ममता जी काटती हैं। पुलिस अपराधियों को पकड़ती है, ममता जी कहती हैं कि उनकी सरकार कानून व्यवस्था पर… सॉरी, वो ऐसा नहीं कहतीं क्योंकि बंगाल में कानून व्यवस्था नाम की चीज है ही नहीं।

मेरे कहने का मतलब यह है कि सेना कुछ करे तो सैनिक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर लें, सड़क बने तो इंजीनियर, पुलवामा हमला हो तो सीआरपीएफ़ बयान दे दे, गंगा साफ हो तो उसमें काम करने वाले लोग बताएँ। सरकार कुछ न करे, क्योंकि सरकारों का इसमें रोल है ही क्या? अंततः, ममता जी के लॉजिक से चलेंगे तो आप कन्विन्स हो जाएँगे कि चुनावों की क्या ज़रूरत है, जबकि हर काम तो अंत में मज़दूर, इंजीनियर, शिक्षक, डॉक्टर या सैनिक कर रहा होता है!

इसमें सवाल उठाने वाले और टेढ़ा बोलने वालों की कमी नहीं है। मिलिट्री कू की फर्जी स्टोरी से अपनी समझदारी साबित कर चुके शेखर गुप्ता के लिए ये कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। गुप्ता जी को लिखने या सेंसिबल बातें कहने की कोशिश से संन्यास ले लेना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि इस उम्र में उनका दिमाग ठीक से काम कर रहा है क्योंकि किसी देश के पास सैटेलाइट को मार गिराने की क्षमता आ जाना उन्हें एक एयर स्ट्राइक जैसी आम ख़बर लगती है।

बात यह भी है कि अब ये लोग इस तकनीक को नीचा तो दिखा नहीं सकते क्योंकि इसमें वैज्ञानिक और इसरो जैसी संस्था का नाम जुड़ा है। फिर बचता यही है कि इसे पोलिटिकल डेस्पेरेशन कह दिया जाए। जबकि ऐसा ट्वीट करने के बाद पिन करके टॉप में लगाए रखना बताता है कि आप कितने डेल्यूजनल हैं इस ट्वीट में कही बातों को लेकर।

ये शेखर गुप्ता जैसों का डेस्पेरेशन है कि हम हैं एडिटर, हमको करना पड़ेगा टाइप, उसमें कुछ ज्ञान देने जैसे शब्द होने चाहिए, और फिर कुछ भी लिख दिया जाता है जिसका तर्क से कोई लेना-देना नहीं होता। ये वही गिरोह है जो शाम होने तक यह कहने ज़रूर आएगा कि भारत में इतने लोग गरीब हैं, और मोदी आकाश में सैटेलाइट उड़ा रहा है। 

कुल मिलाकर बात यह है कि ये लोग मोदी के आर्मर में चिंक नहीं ढूँढ पा रहे। राफेल घोटाला वाला मुद्दा क्रैश कर चुका है। नोटबंदी और जीएसटी के बावजूद इकॉनमी स्वस्थ है, रोजगार लगातार बढ़ें हैं, टैक्स कलेक्शन बढ़ा है, किसान बेहतर स्थिति में है, सड़कें बन रही हैं, गंगा साफ हो रही है, विदेश में भारतीय छवि बेहतर हुई है, पाकिस्तान को उसकी भाषा में लगातार जवाब दिया गया है, अतंरिक्ष में हम नए कीर्तिमान बना रहे हैं।

और, हर बार की तरह न तो विपक्ष के पास, न ही पत्रकारिता के समुदाय विशेष के पास कुछ भी ढंग का है कहने को। इसलिए ममता इस बात पर चुनाव आयोग जाने की धमकी देती हैं, गुप्ता जी इसे डाउनप्ले करते हैं जैसे उनके लौंडे ने बीयर की बोतल में बीस रुपए का रॉकेट रखकर आग लगाई हो, राहुल गाँधी को इसमें थिएटर डे की याद आती है, और कॉन्ग्रेस को याद आता है कि नेहरू जी तो इसरो में ही बीड़ी पीने जाया करते थे।

इससे मोदी या भाजपा की छवि को दो पैसा फ़र्क़ नहीं पड़ता। इससे फ़र्क़ पड़ता है वैसे लोगों को जो जनता की नज़रों में स्वयं ही कपड़े उतार कर नंगे हो रहे हैं। आम जनता को भले ही मिसाइल की ट्रैजेक्ट्री कैलकुलेट करने न आए लेकिन वो इतना समझता है कि अंतरिक्ष में चल रहे सैटेलाइट का मार गिराना कितनी बड़ी बात है।

विपक्ष और मीडिया में बैठे तथाकथित निष्पक्ष लम्पट पत्रकार मंडली को यह जानना चाहिए कि दौर अख़बारों का नहीं है। दौर वह है जहाँ हाथ में रखे फोन पर, शेखर गुप्ता के ज्ञानपूरित ट्वीट से पहले पाँचवी के बच्चे तक को ASAT का अहमियत समझाने वाले विडियो उपलब्ध हो जाते हैं। दौर वह है जहाँ मोदी की सात मिनट की स्पीच के आधार पर इस तकनीक से जुड़े दस-दस लेख, हर पोर्टल, हर भाषा में उपलब्ध करा रहा है।

इसलिए, जनता को विवेकहीन मानकर एकतरफ़ा संवाद करने वाले नेताओं, पत्रकारों और छद्मबुद्धिजीवियों को याद रखना चाहिए कि वो चैनल और सोशल मीडिया से भले ही कैम्पेनिंग करते रहें, लेकिन जनता के सामने हर तरह के विकल्प मौजूद हैं। इनके तर्क इनकी बुद्धि की तरह ही खोखले हैं।

इंतजार कीजिए, कोई मूर्ख नेता और धूर्त पत्रकार जल्द ही यह पूछेगा कि जो सेटैलाइट मार गिराया गया, उसका धुआँ तो आकाश में दिखा ही नहीं, उसके पुर्ज़े तो कहीं गिरे होंगे, उसका विडियो कहाँ है। और इन मूर्खतापूर्ण बातों पर भी प्राइम टाइम में बैठे पत्रकार गम्भीर चेहरा लिए कह देंगे, “आप कहते हैं कि आपने सेटैलाइट मार गिराया। जब आपके पास इतनी उन्नत तकनीक है, तो फिर मारते समय विडियो लेने की भी तो तकनीक होगी। सबूत दिखाने में क्या हर्ज है?”

Tuesday, March 26, 2019

समस्या ये नहीं की किसी ने कहा आय 72000 सालाना कर देंगे। समस्या ये है की किसी ने "मुफ्त" कहा और हम इस इंतज़ार में बैठ गए की चलो साल में टोटल 72000 मिलेंगे। जहाँ देश की कुछ परसेंट आबादी 500 रूपये में अपना वोट बेच देती हैं वो ये कैसे सोच लेगी की गरीबी बरसो से चली आ रही है और हर बार ये गरीबी हटाओ का नारा देकर सत्ता में आते हैं और फिर खुद अपनी जेब भर लेते हैं। एक गरीब आदमी जो आखिरी छोर पे बैठा है वो बाकी चीज़े नहीं सोचता वो तो बस अपना फायदा देखता है जो की हर इंसान देखता है।

आज के समय में गांवों में रहने वाले भूमिहीन और गरीब लोग मनरेगा के तहत भुगतान पाते हैं। तत्कालीन सरकार के द्वारा मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी को 42 प्रतिशत बढ़ाया गया है जिससे अधिकतर औद्योगिक कामगारों को 12000 रूपये प्रतिमाह से अधिक का वेतन मिलता है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद सरकारी नौकरियों में वेतन की सबसे निचली सीमा 18000 रूपये प्रतिमाह है। गरीबों की अगर इतनी चिंता है तो वे अपने शाषित राज्यों में पीएम किसान योजना और आयुष्मान भारत योजना क्यों नहीं लागू करवाया अभी तक। जबकि इन योजनाओं से गरीबों, किसानो को सीधे सीधे फायदा मिलता। लेकिन यहाँ मुद्दा गरीबी हटाना नहीं है बल्कि किसी भी तरह सत्ता हथियाना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने बीते पांच सालों में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण(सीधे खाते में पैसा) की बैंकों के जरिए शुरूआत की। कई लोग खुश हैं की सब्सिडी का पैसा सीधा बैंक खाते में आ रहा है। आयुष्मान भारत योजना, उवर्रक सब्सिडी, खाद्यान्न सब्सिडी, और 55 मंत्रालयों द्वारा विभिन्न योजनाओं के तहत लगभग 5.34 लाख करोड़ रूपये की सब्सिडी/फायदा जरुरतमंदो को पहुँचाया जा रहा है। लेकिन यहाँ तो ज्ञानी इतने हैं की गैस की पूरी कीमत बतायेंगे लेकिन ये नहीं बतायेंगे की सब्सिडी में खाते में हीं लौट के आ रही है। राहुल जी ने ये नहीं बताया की जो ये मुफ्त के पैसे देने के लिये बोल रहे हैं उसका बोझ देश का कौन सा वर्ग सहन करेगा। ये नहीं बताया की हम देश को मुफ्तखोरी की आदत दिलाकर देश की अर्थव्यबस्था को कमज़ोर और गृहयुद्ध जैसे माहौल क्यूँ तैयार कराना चाहते हैं जैसा की हम अभी बेनेजुएला में देख रहे हैं।

बर्तमान सरकार के द्वारा चलायी जा रही योजनाओं से प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से अभी प्रति परिवार Rs.1,06,800 प्रति वर्ष बैठता है जबकि कांग्रेस की घोषणा 72 हजार रूपये प्रतिवर्ष की है। अगर कांग्रेस को गरीबी हटानी होती वो बरसों पहले हटा देतें या हटाने की कोशिश करते लेकिन इन्होने गरीबी हटाई तो दामाद जी की। इनको खुद के जेब भरने से फुरसत होती तब ना देश की चिंता करते। इनकी अभी भी यही मंशा है की गद्दी किसी तरह से मिल जाये और देश को खोखला करना शुरू कर दें।

बाकी आप भी समझदार हैं। कोशिश ये कीजिये की कोई ऐसा बंदा मिले तो उसे बर्तमान सरकार के द्वारा चलायी जा रही योजनाओं के फायदे बतायें। जिनको जानकारी नहीं है उनको इन योजनाओं के बारें में बताईये और इन योजनाओं में एनरोल करवाने में मदद कीजिये। मोदी अकेला कितना करेगा कुछ हम भी तो सहयोग कर लें।
#अबकी #बार #फिर #से #मोदी #सरकार

Monday, March 25, 2019

पूरा पढ़िए।मजेदार आलेख है।
कांग्रेस में कार्यकर्ताओं की हैसियत क्या है ?
 
कॉन्ग्रेस के लिए देश है प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी: ‘मालिक’ चाहेगा तो ‘मैनेजर’ हट जाएगा, संतान आ जाएगी।

भाजपा में कोई नेता सरकार के किसी अध्यादेश को फाड़ कर दिखाने की हिम्मत कर सकता है; अगर कर भी दे तो क्या पार्टी में राहुल गाँधी सरीखे रुतबे के साथ राजनीति कर सकता है?


गाँधी परिवार के 'बाउंसर' हैं कॉन्ग्रेस के 'नेता'
कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ता नहीं बल्कि ‘बाउंसर’ होते हैं- सोनिया गांधी के, राहुल गांधी के, प्रियंका वाड्रा के।

इन दिनों क्योंकि चुनावी सीजन चल रहा है, और राजनीति में मेरी मामूली सी दिलचस्पी भी है, तो अक्सर लेखन में राजनीति या राजनीति के किसी प्रसंग का पुट आ ही जाता है। और ऐसा ही एक प्रसंग मुझे फिलहाल याद आ रहा है, जिसे मैं कॉन्ग्रेसियों को समर्पित करना चाहूँगा।

2006-07 की बात है। एक सज्जन दिल्ली में कॉन्ग्रेस के एक सीनियर नेता का पी.ए. हुआ करता था। उनकी सीनियरटी का अंदाज इससे लगा लीजिए कि वे इंदिरा गाँधी की कैबिनेट में भी कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे। एक बार वह बीमार पड़ गए, और कुछ दिनों के लिए उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। उनकी गैर मौजूदगी में अक्सर उनके दामाद उनके चैम्बर में बैठने आया करते थे। उनको ‘भला’ तो नहीं कहूँगा पर लगभग ‘सज्जन’ ही थे।

एक बार वे साहब के चैम्बर में बैठे हुए थे, और उन्होंने उस सज्जन को बजर देकर बुलाया। वो जब उनके पास पहुँचा तो वे फोन पर किसी से बात करते हुए कह रहे थे, “अभी तो हम हॉस्पिटल में एडमिट हैं।” बात खत्म होने के बाद उन्होंने कुछ काम बताया और वो बाहर आ गया। लेकिन उनके यह शब्द उसके दिमाग में खटक रहे थे कि यह तो भले चंगे हैं, ये कहाँ एडमिट हैं, तो क्यों कह रहे हैं कि एडमिट हैं?

फितरतन जरूरी चीजों में बेशक दिमाग काम नहीं करता है, लेकिन ऐसी मिस्ट्री सुलझाने में दिमाग एकदम फ्रंट-फुट पर खेलने लगता है। और वो बाद में, तमाम चिन्तन के बाद, इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इसके दो मायने हैं- एक पर्सनल है, और दूसरा कॉन्ग्रेसी कल्चर का हिस्सा।

जैसे साहब के दामाद के कथन से यह अभिप्राय था कि उनका अपना कोई वजूद नहीं है, वे जो कुछ भी हैं साहब की वजह से हैं, जो कि सच भी था। और इसलिए अगर ‘साहब’ को बुखार है तो वे भी ‘क्रोसिन’ खाना शुरू कर देते हैं, साहब को अगर मलेरिया है तो वे भी अपना ब्लड टेस्ट करवा लेते हैं, साहब अगर खुश हैं तो वे नाचने लगते हैं, साहब अगर दुखी हैं तो वे रुदाली बन जाते हैं। क्योंकि उनका अपना कुछ भी नहीं है, वे जो कुछ भी हैं साहब की वजह से हैं।

यही हाल हूबहू कॉन्ग्रेसियों का है। उनका अपना कुछ भी नहीं है। वे जो कुछ भी हैं नेहरू-गाँधी परिवार की वजह से हैं और इसलिए वे जो कुछ भी करते हैं, वह इस परिवार विशेष को ही समर्पित होता है।

आपको याद होगा कि 2014 के चुनावों में, मोदी जी के पीएम पद का प्रत्याशी घोषित होने के बाद भी, मीडिया और विपक्ष के कई नेता इस अफवाह को हवा देते थे कि भाजपा के कुछ सीनियर नेता, मसलन आडवाणी, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी इत्यादि, ‘मिशन 180’ पर काम कर रहे हैं- ताकि भाजपा 200 सीटों के भीतर सिमट जाए और मोदी की बजाय उनमें से ही कोई एक पीएम बन जाए। यह थ्योरी कुछ लोग अभी भी चला रहे हैं।

एकबारगी इस थ्योरी और अफवाह पर यकीन भी कर लिया जाए तो हमें भाजपा की इस बात के लिए दाद तो देनी पड़ेगी कि यहाँ कोई भी छोटा-बड़ा, साधारण और विशिष्ट नेता पीएम बनने की सोच सकता है।

पर क्या कॉन्ग्रेस में ऐसा मुमकिन हो सकता है? क्या कॉन्ग्रेस में किसी की मजाल है कि वे वह अपने माई-बाप यानि दस जनपथ परिवार की मर्जी के बिना एक पार्षद बनने तक का ख्वाब देख सके? ऐसा नहीं है कि सारी योग्यता और टैलेंट बीजेपी के ही नेताओं में है; मैं मानता हूँ कि कॉन्ग्रेस में भी योग्य नेताओं की कमी नहीं है।

लेकिन उनकी तमाम योग्यता तब धरी रह जाती है, जब वे किसी मजबूरी, स्वार्थ, अथवा सस्ती चालाकी के चक्कर में गाँधी परिवार की गुलामी का वरण कर लेते हैं और इसे सहर्ष स्वीकार भी करते हैं- जैसा कि आज राजस्थान के सीएम ने अपने बयान में कहा है कि कॉन्ग्रेस के लिए गाँधी परिवार का नेतृत्व इसलिए जरूरी है कि इसकी वजह से पार्टी में एका है। अगर कॉन्ग्रेसियों के सिर से गाँधी परिवार का ‘हाथ’ हट जाए तो यहाँ भगदड़ मच जाएगी।

जैसा कि नरसिंह राव के दौर में हुआ था। जब राजीव गांधी रहे नहीं थे। सोनिया गाँधी सक्रिय राजनीति में उतरी नहीं थीं। तब देश की सबसे पुरानी पार्टी होने और आजादी की लड़ाई लड़ने का दंभ भरने वाले कॉन्ग्रेसियों ने तिवारी कॉन्ग्रेस, सिंधिया कॉन्ग्रेस, अर्जुन कॉन्ग्रेस, तमिल मनीला कॉन्ग्रेस, इसकी कॉन्ग्रेस, उसकी कॉन्ग्रेस जैसे तमाम दल बना लिए थे। फिर सोनिया जी ने कॉन्ग्रेस की बागडोर संभाली और सबको पुचकार के बुलाया तो सब फिर से दस जनपथ के वफादार बन गए।

भाजपा दूध की धुली नहीं है। दूध का धुला मैं भी नहीं हूँ। और दुनियादारी को दूध में धुले होने वाले मानकों से नापना भी नहीं चाहिए- खासकर राजनीति को तो कतई नहीं। पर इसके बाद जो पैमाने बच जाते हैं, उन सभी पैमानों पर भाजपा एक श्रेष्ठ पार्टी है, पार्टी विथ डिफ़रेंस है। और इसे कई प्रकार से समझा जा सकता है।

सितम्बर 2013, तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। राहुल गाँधी अपनी ही पार्टी के नेता अजय माकन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहुँचते हैं। वहाँ अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देते हैं। अध्यादेश जो एक क़ानून होता है, जिसे प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट पास करती है। पर राहुल गाँधी ऐसा कर देते हैं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न केवल गोंद पीकर रह जाते हैं, बल्कि जब उनका मुँह खुलता है तब वे कहते हैं कि राहुल जी जब चाहेंगे, तब वे अपने पद से हटने को तैयार हैं।

क्यों भई? यह लोकतांत्रिक देश है या कोई प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी, कि ‘मालिक’ जब चाहेगा तब ‘मैनेजर’ को हटा देगा और अपनी संतान को कम्पनी सौंप देगा?

आज भाजपा में कोई नेता सरकार के किसी अध्यादेश को फाड़ कर दिखाने की हिम्मत कर सकता है; अगर कर भी दे तो क्या पार्टी में राहुल गाँधी सरीखे रुतबे के साथ राजनीति कर सकता है? आडवाणी जी पार्टी लाइन से इतर जिन्ना की मजार पर सेक्यूलरीज्म के फूल चढ़ा आए थे, जिसका हश्र यह हुआ कि उनकी बाकी राजनीति जिन्ना के भूत से पीछा छुड़ाने में गुजर गई। यही हश्र भाजपा के एक और कद्दावर नेता जसवंत सिंह के साथ हुआ। उन्होंने किताब लिखकर जिन्ना को सेकुलर होने का तमगा दिया और उनकी जीवन भर की राजनीति जिन्ना के वास्ते होम हो गई। यह सब एक राष्ट्रवादी और जीवंत संगठन में ही सम्भव हो सकता है।

यह अगर संभव नहीं हो सकता है तो कॉन्ग्रेस में, क्योंकि कॉन्ग्रेस कोई पार्टी-वार्टी नहीं है बल्कि एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी है।

और इसीलिए यहाँ जो लोग अपने आपको नेता, कार्यकर्ता, पदाधिकारी कहते हैं, मुझे उन पर भी बड़ा तरस आता है, क्योंकि जहाँ कार्यकर्ता हो सकते हैं वह एकमात्र पार्टी सिर्फ भाजपा है, वरना कॉन्ग्रेस सहित जितने भी दल हैं, वहाँ कार्यकर्ता नहीं बल्कि ‘बाउंसर’ होते हैं। वे बाउंसर हैं सोनिया गांधी के, वे बाउंसर हैं राहुल गांधी के, और वे बाउंसर हैं मिसेज प्रियंका वाड्रा के।

खैर, फिलहाल इस चर्चा को यहीं विराम देना चाहिए। लिखने का उद्देश्य सिर्फ लेखक बनना नहीं होता बल्कि अपनी उन भावनाओं को भी अभिव्यक्ति देना होता है, जिनके बारे में आपको लगता है कि अब कह ही देना चाहिए। सही-गलत के सबके अपने-अपने पैमाने हो सकते हैं, पर कुछ मौके ऐसे आते हैं जहाँ ‘खामोश’ और ‘निष्पक्ष’ नहीं रहना चाहिए।

Saturday, March 23, 2019

इनवेस्टमेंट / 35 की उम्र से पहले संपत्ति में निवेश दिलाएगा फायदा।

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मौजूदा वक्त में युवा कमाई के साथ बचत और संपत्ति बनाने के प्रति भी सजग हैं। 35 की उम्र से पहले होम लोन लेकर अगर घर खरीदा जाए तो कई बड़े फायदे होते हैं। ऐसे ही चार बड़े फायदों के बारे में  बता रहे हैं ।

जल्दी इनवेस्टमेंट आपको दिलाएगा कई फायदे

  1. स्टेप-अप सुविधा का फायदा 

    युवा घर खरीदारों के लिए एक खास सुविधा है 'स्टेप अप ईएमआई', जहां लोन ईएमआई की भुगतान प्रक्रिया निकट भविष्य में ग्राहक की आमदनी में होने वाली संभावित वृद्धि से जुड़ी होती है।
    • इस सुविधा के तहत ऋण के शुरुआती कुछ वर्षों के बाद ईएमआई राशि धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। यह बढ़ोत्तरी निकट भविष्य में लोन ग्राहक की आमदनी में संभावित वृद्धि के अनुपात में होती है।
    • ऋणदाता कंपनी आमतौर पर ऋण का ढ़ांचा कुछ इस प्रकार रखती है कि एक पूर्व निश्चित दर से आमदनी में वृद्धि का अनुमान लगाकर ईएमआई राशि में भी वृद्धि तय की जाती है।
    • उदाहरण के तौर पर, 20 वर्ष के लोन पर हर 5 साल के स्लैब में 5-7% प्रति वर्ष की दर से आमदनी में वृद्धि का अनुमान लगाया जाता है।
    • उम्र के 40 के दशक के व्यस्कों की तुलना में युवाओं की आमदनी बढ़ने की संभावना अधिक होती है। ऐसे में युवा लोन ग्राहकों के लिए यह भुगतान सुविधा उपयोगी बनती है।
    • उन्हें कम उम्र में घर के मालिक बनने और ऋण अवधि के शुरुआती वर्षों में कम ईएमआई राशि का दोहरा फायदा मिल सकता है।
    • हालांकि, इस ईएमआई सुविधा को चुनते वक्त आपको यह याद रखना जरूरी है कि अगर उम्मीद के अनुसार आमदनी नहीं बढ़ती है, तो ईएमआई बढ़ने पर इसे चुकाना मुश्किल भी हो सकता है। 
  2. अधिक ऋण राशि की पात्रता

    अधिक उम्र वाले लोगों की तुलना में 20 और 30 के उम्र दशक वाले लोगों की आर्थिक जिम्मेदारियां कम होती हैं। ऋणदाता लोन ग्राहक की ऋण चुकाने की क्षमता का आंकलन करने के लिए फिक्स्ड ऑब्लिगेशन टू इनकम रेश्यो (FOIR) को काफी अधिक महत्व देते हैं।
    • अगर FOIR कम है तो इससे किसी भी व्यक्ति की होम लोन पात्रता अपने आप बढ़ जाती है। दरअसल, FOIR का मतलब होता है आपकी मासिक आमदनी में से होने वाला निश्चित खर्च, जैसे मौजूदा ऋण की ईएमआई, क्रेडिट कार्ड बिल आदि।
    • वहीं, अधिक FOIR से यह संकेत मिलता है कि आपकी मासिक आमदनी और निश्चित खर्चों के बीच संतुलन ठीक नहीं है और इसलिए भविष्य में कोई आर्थिक मुश्किल पेश आने या कोई बड़ा खर्च होने पर ऋण को न चुका पाने की संभावना अधिक होगी। 
       
  3. ऋण चुकाने की लंबी अवधि 

    20 और 30 के उम्र दशक में मौजूद नौकरीपेशा या कामकाजी लोगों को ऋण चुकाने की लंबी अवधि मिलने की संभावना भी अधिक होती है।
    • यह अवधि 30 वर्ष तक हो सकती है। चूंकि अधिकतर वेतनभोगी लोग 60 की उम्र में रिटायर हो जाते हैं, इसलिए 30 की उम्र से पहले घर खरीदने का मतलब होगा कि आपको ऋण चुकाने के लिए लगभग 30 वर्ष का समय मिलेगा।
    • कम उम्र में एक घर खरीदने से यह भी फायदा होगा कि आप अपनी कामकाजी उम्र में ही पूरा होम लोन चुका सकेंगे।
  4. संपत्ति का मूल्य बढ़ेगा 

    कम उम्र में घर खरीदने का एक बड़ा फायदा यह भी मिलेगा कि आप जितनी जल्दी घर खरीदेंगे, आपके घर की कीमत बढ़ने के लिए उतना ही लंबा वक्त मिलेगा।
    • वैसे तो कीमत बढ़ने की बात कई स्थितियों पर निर्भर होगी, जैसे कि महंगाई, संपत्ति का स्थान, रियल एस्टेट बाजार में मांग और संपत्तियों की उपलब्धता आदि, लेकिन आपके पास एक लंबी अवधि होने पर आपके घर की कीमत बढ़ने की संभावना भी अधिक होगी।
    • एक लंबी अवधि के दौरान, हमारे देश में किसी अच्छे इलाके में मौजूद निवासी संपत्ति की कीमत प्रति वर्ष 10-20% तक बढ़ती है। इसका मतलब यही होगा कि आपकी संपत्ति यानि घर में किए गए निवेश में भी उतनी ही बढ़ोत्तरी हो जाएगी
आपका वोट आपका अधिकार !!!!
मुजफ्फरपुर में अबकी बार वोट सांसद के किये गए काम पर!!
ना की सिर्फ मोदी जी के नाम पर!!
व्यक्ति विशेष के नाम पर वोट देना मतलब लोकतंत्र की हत्या करना है।मतदान मुद्दों पर होना चाहिए।माना कि मोदी जी बहुत अच्छा काम कर रहे है।देश उनके हाथों में सुरक्षित है।लेकिन मुजफ्फरपुर से NDA का ये उम्मीदवार किसी भी कीमत पर नही चलेगा।सिर्फ मोदी जी के नाम पर राजनीति करने से कुछ नही होने वाला है।अब वो जमाना गया।कुछ तो काम करना होगा क्षेत्र में।या 5 साल गायब और चुनाव के समय प्रकट हो गए कि हमको जिताइये और मोदी जी को मजबूत बनाइये।इस झांसे में नही आना है इस बार।भाई लोग कुल 543 लोकसभा क्षेत्र है।272 बहुमत का आंकड़ा है।NDA कुल 543 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है।1 सीट पर हार ही जाएगी तो पहाड़ नही टूट पड़ेगा।इसलिए इस झांसे में मत आइये की उम्मीदवार को मत देखिए मोदी जी को देखिए।बिल्कुल उम्मीदवार को देखिए इस बार।अगर आपकी अंतरात्मा आपको इज़ाज़त देती है कि इस उम्मीदवार को इस बार भी वोट दिया जाए तो दीजिये।लेकिन वोट देने से पहले एक बार विचार जरूर कर लीजिएगा की आखिर सांसद महोदय ने मुजफ्फरपुर के लिए किया क्या है ??
"मोदी जी मजबूत है और मजबूत ही रहेंगे"
Narendra Modi Amit Shah
पर इस बार मुजफ्फरपुर में सिर्फ मोदी जी के नाम पर वोट नही होना चाहिए बल्कि उम्मीदवार के काम पर वोट होना चाहिए।
क्या महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव को कन्हैया कुमार से डर लगता है?
इससे पहले माना जा रहा था कि महागठबंधन बेगूसराय सीट पर कन्हैया कुमार को मैदान में उतार सकती है या वो सीट उनके लिए छोड़ सकती है. हालांकि असल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.

जब राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में 2015 के बिहार फॉर्मूले पर विपक्षी एकता की बात चल रही हो, ऐसे में प्रोयगशाला का ही ढह जाना नुकसानदेह साबित हो सकता है. महीनों तक विपक्षी कुनबे में जोर आजमाइश के बाद बिहार की 40 सीटों का आपसी बंटवारा हुआ लेकिन इसमें सीपीआई के लिए कोई जगह नहीं है. यानी नौ फरवरी, 2016 के बाद जो कन्हैया कुमार जेएनयू से बाहर निकल बेजीपी विरोधी दलों की एकता के औजार बने अब वही अकेले पड़ गए हैं.

सीपीआई नेता सीताराम येचुरी के साथ जंतर मंतर से लेकर ममता दीदी के मंच तक विपक्षी एकता का पाठ पढ़ाने वाले तेजस्वी ने आखिर इतना बड़ा फैसला क्यों किया ?  क्या तेजस्वी यादव को  प्रखर वक्ता और युवाओं के बीच पैठ बना रहे कन्हैया कुमार से डर लगने लगा है?

कन्हैया कुमार वो पहले नेता हैं जिनकी उम्मीदवारी घोषित की गई.  सीपीआई उन्हें बेगूसराय से उतारने की तैयारी कर रही है.  कन्हैया बिहार के वो पहले उम्मीदवार हैं जिन्होंने अपना चुनाव प्रचार शुरू किया.

माना जा रहा था कि वाम दल महागठबंधन के हिस्सा रहेंगे और बेगूसराय सीपीआई के खाते में आएगी लेकिन सीट बंटवारे में लेफ्ट पार्टियों को लेफ्ट कर दिया गया. सिर्फ भाकपा माले का एक उम्मीदवार लड़ेगा वी भी राजद के कोटे से.

जेएनयू विवाद के बाद पहली बार बिहार आये कन्हैया कुमार को तब बिहार के सभी गैरभाजपाई दिग्गजों ने हाथों हाथ लिया था. कन्हैया ने भी सभी मोदी विरोधी नेताओ के दरवाजे-दरवाजे जाकर मत्था टेका. नीतीश भी तब मोदी विरोध के झंडाबरदार थे.

कन्हैया ने नीतीश कुमार के पैर छूए तो उन्होंने भी बिहार का बेटा कहकर आशीर्वाद दिया. कन्हैया लालू के घर गए. उनका भी आशीर्वाद लिया. तब तेजस्वी ने भी बड़ी आत्मीयता से गले लगाया, बगल में बिठाया लेकिन अंदरूनी दूरी बनाए रखी.

ये तय है कि बेगूसराय में महागठबंधन और एनडीए की लड़ाई में सीपीआई के लिए किसी उम्मीद की गुंजाइश बहुत कम रहेगी

Friday, March 22, 2019

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण TRAI ने केबल टीवी यूज़र्स के लिए नए नियम जारी किये हैं। आपको बता दें कि इस DTH रेग्युलेशन के मुताबिक यूज़र्स को उसी चैनल देखने के पैसे देने होंगे जो वह देखते हैं। अब उन्हें किसी भी ऐसे चैनल के लिए भुगतान नहीं करना पड़ेगा जिन्हें वो नहीं देखते हैं या उनके द्वारा उस चैनल को सेलेक्ट नहीं किया गया है। इसके साथ ही हर चैनल के लिए फेयर प्राइसिंग मॉडल्स को भी लागू किया जाएगा। आपको बता दें कि Cable TV का नया नियम अगले महीने यानी 1 फरवरी से लागू हो जाएगा।
ट्राई ने यूज़र्स को अपना पसंदीदा टीवी चैनल चुनने के लिए 31 जनवरी का डेडलाइन दिया है। ऐसे में अगर आपको यह नहीं समझ आ रहा है कि आप किस तरह सस्ते और बेस्ट चैनल्स का चुनाव कर सकते हैं, तो आज हम आपको इसका समाधान बताएँगे। आपको हम बताने जा रहे हैं कि चुनाव के दौरान किन बातों का ध्यान रखना चाहिए और आपके लिए क्या ज़रूरी है। 
चैनल का सिलेक्शन करने से पहले बेस पैक लेना हर यूज़र के लिए जरूरी होता है। इस बेस पैक में 100 नॉन-एचडी फ्री-टू-एयर चैनल्स फ्री में मिलेंगे। आपको बता दें कि इस बेस पैक को आप अधिकतम 130 रुपये में ले सकते हैं। साथ ही आपको टैक्स अलग से देना होगा।बेस पैक के अलावा आप अपनी पसंद के "पेड बुके चैनल्स" का चुनाव कर सकते हैं। इन सभी बुके पेड चैनल्स के लिए इंडिविजुअल मंथली किराया तय किया गया है।
अगर आप इन बुके चैनल्स को कॉम्बो में सब्सक्राइब करते हैं तो आपको डिस्काउंट भी दिया जायेगा। ये बुके चैनल्स भाषा और क्षेत्र के मुताबिक चुनें जा सकते हैं। आपको बता दें कि इन बुके चैनल्स को आप बेस पैक के साथ जोड़ सकते हैं। ख़ास बात यह है कि एक साथ 9 बुके चैनल्स को सब्सक्राइब करना आपके लिए फायदेमंद होगा क्योंकि यह किसी अकेले एक चैनल को सब्सक्राइब करने से सस्ता है।

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बेस पैक या बुके पैक में अपनी पसंद का चैनल सेलेक्ट करना ज़रूरी है। आप अपने मंथली बजट के मुताबिक SD या HD चैनल ले सकते हैं। आपको बता दें कि कई ब्रॉडकास्टर्स के 535 Free to air चैनल्स और 330 paid channels रजिस्टर्ड हैं। ऐसे में आप इन चैनल्स के चुनाव से पहले यह तय कर लें कि आप कौन सा चैनल देखना चाहते हैं और उसके बाद आपके मंथली बजट में फिट होने वाले चैनल को चुनें।